आंधी देखि थी उठती, भाई-भाई के प्यार में।
तक्र्रार हुई थी, मर-मार हुई थी, यार-यार की यारी में।
सिख मरा, मुसलमान मरा, हिंदू भी ना बच पाया।
धरम-धरम के नाम पे लार्रते, धरम का मतलब न कोई समझ पाया।
धरम बचाने करम कमाने, लार्रे इक-दूजे से यह।
न धरम बचा, न करम किया, किया भावना का भी सफाया।
दूजे इनकी दूरी को देख, फूले नहीं समाते थे।
कभी बहकाकर, कभी डराकर, आग में घी डलवाते थे।
यह आग जली, सालों जली, बहुत घरों को इसने जलाया।
आज़ादी के शुभ अवसर पर, इसने अपना रंग दिखलाया।
पाकिस्तान बना, हिन्दुस्तान बटा, सिखिस्तान की भी थी हुई अपील।
भारत माँ के अंग कटे थे, कुछ यहाँ मील तो कुछ वहां मील।
घर गवाया, यार गवाए, छूटा अपना प्यारा गाऊँ।
भारत माँ के आँचल की थी, बटी वोह गहरी असीम छाओं।
भारत माँ के आँचल की थी, बटी वोह गहरी असीम छाओं।
- इन्द्रपाल सिंह धामी, फरवरी 1999